भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

याद का घर / अजय कुमार

Kavita Kosh से
वीरबाला (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:39, 17 नवम्बर 2022 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

कभी
उसके साथ सिर्फ
एक कॉफी का कप भर
पिया था मैंने
और देखता हूँ तब से
धीरे धीरे
मेरे भीतर
एक और याद का घर
आबाद हो गया

मेरे देखते- देखते
उस याद ने
मुझसे बिना पूछे
अपने उस छोटे से घर में
अपनी मर्जी के पर्दे
अपनी मर्ज़ी के गुलदान
अपनी मर्जी के फूल लगा लिये

और देखिए मैं
बरबाद हो गया.....