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और...दिन भर / कुमार रवींद्र

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और...
वे बैठी रहीं दिन भर
आँसुओं के द्वीप ही पर

देह का इतिहास उनका
है अधूरा
स्वप्न उनकी कोख का
कोई न पूरा

कभी
वे भी थीं बनातीं
नदी-तट पर साँप के घर

भटकने को मिला उनको
एक जंगल
घर मिला जिसकी नहीं थीं
कोई साँकल

सोनचिड़िया
वे अनूठीं
कटे जिसके हैं सभी पर

आँच उनके बदन की
उनको जलाती
कोई लिखता नहीं उनको
नेह-पाती

रात आए
परी बनतीं
नाचती हैं ज़हर पीकर ।