भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

नगर एक दृश्य / श्रीनिवास श्रीकांत

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:41, 12 जनवरी 2009 का अवतरण ("नगर एक दृश्य / श्रीनिवास श्रीकांत" सुरक्षित कर दिया [edit=sysop:move=sysop])

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपनी लाल, तिकोनी छतों के साथ
फिरंगी दिनों की याद दिलाता है
यह पर्वतीय नगर

पश्चिमी घाटी में हवा से एकाएक
टूटती है ख़ामोशी

तराशे क्षितिजान्त आकाश में
ढलानें करती हैं
एक दूसरे से सम्वाद
हिलते हैं स्वीकार में
चीड़ों के एक साथ
अनेक सिर
अदभुत लय में

वे सब सुन रहे
ढलानों-चट्टानों की गुफ़्तगू
भर रहे हामी

जंगल की हवा
थपथपाती है
शीशों-जड़ी खिड़कियाँ
बजाती हैं छतें
अपने-अपने नगाड़े

षडज और पंचम के बीच
गाता है आसमान
अपने नीम-तूफ़ानी स्वर में

यह है फागुन के बाद का
नगर का पहला ग्रीष्म
स्मृति और समय की
भूलभुलैया को
देता उकसाहट

एक-एक कर खुलने लगते
अतीत के मंजर
गये कल की पार्टियाँ
बारों में जामों की खनखनाहट
सनकी बुद्घिजीवियों के
बेशुमार किस्से

यह शहर
बजता है
मेरी नसों में
और पूरे लैण्डस्केप के साथ
हिलने लगता है
चेतना का वृक्ष
टहनियों समेत
उसकी बजती हैं
पत्तियाँ।