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19 जनवरी 1990 की रात / अग्निशेखर
Kavita Kosh से
घाव की तरह
खुलती हैं मकानों की खिड़कियाँ
छायाओं की तरह झाँकते हैं चेहरे हर तरफ़
फैल रहा है बर्फ़ानी ठंड में शोर
हमारी हड्डीयों की सुरंग में घुसने को मचलता हुआ
गालियाँ, कोसने, धमकियाँ
कितना-कुछ सुन रहे हैं हम
तहख़ाने में कोयले की बोरियों के पीछे
छिपाई गई मेरी बहनें
पिता बिजली बुझाकर घूम रहे हैं
कमरे में यों ही
रोने-बिलखने लगे हैं मौहल्ले के बच्चे
होंठ और किवाड़
दोनों हैं ब्न्द
बाहर कोई भी निकले
शब्द या आदमी
दोनों को ख़तरा है