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चुपचाप / मोहन साहिल
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कौन मैली करना चाहता था
बर्फ़ की साफ़-सफ़ेद चादर
मगर मुझे लगा जीवन आवश्यक
प्रकृति के सुंदर दृश्यों से
नदी के प्रवाह को मानता था बहा नहीं
एक टुकड़ा उपजाऊ धरती रोके रही मुझे
चाहता नहीं था मैं सूरज-सा दहकना
अपने में भस्म हो जाना
जुगन बनना आवश्यकता थी
वरना इस अंधेरे में कुचला जाता
इस पहाड़ में कोई संजीवनी नहीं
बुलंदियों का शौक नहीं
नहीं चाहता विजय मगर,
देखनी है मुझे यहाँ से बस्तियाँ
और गिनने हैं बिना धुएँ के चूल्हे
ये चीख़ अनजाने निकल गई मुझसे
बावजूद रक्त-सने पाँवों के
मैं तय करना चाहता था चुपचाप
पूरा का पूरा पठार।