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अफ़गान प्रसंगः एक स्मृति / श्रीनिवास श्रीकांत

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कितना विस्मयविमुग्धकारी है
यह संसारी रचनात्मक कैवल्य
सब कुछ एकाएक बदल गया भग्नावशेष में
मौत से दहशत भरी वे बस्तियां
घरों से उठती ध्वनियां
मशीनों पर बजता संगीत
बच्चों के सटापू,झूमाझूमियां,चक्रदोल
पानियों,बारिश, समुद्र के उनके
पारम्परिक खेल-गीत

खिड़कियों से फौजों को
अभिवादन में हिलते हाथ
मिमियाते बकरियो के
धुंधलके में घर लौटते रेवड़
सब एकाएक हो गये स्तब्ध

चुप हैं नखलिस्तान के फल उद्यान
रेत के पठार
चुप हैं गन्धर्व नगरों के खण्डित महामार्ग
खजूर के झबरे पेड़
अंगूरी लताएं
माँस,पुलाव,बिरियानियां
चुप हैं सब
और वे अभ्यागत वे अतिथि वे मेहमान
कुल्लेदार पगड़ियों
पठानी सूटों में लकदक
बाट जोहते मेज़बान जिनके लिये
बिछाते थे आदर से दस्तरखान
चलती रहती थीं देर-देर तक
जिनकी मिजाज़पुर्सियां
चुप हैं सब
पठान बीबियों के हाथों
बंटते लजीज़ सूखे मेवे
काठ के कटोरों में
बन जाते एक ज़िन्दा तहजी़ब
सभी-की-सभी जैसे ठिठक गयी थीं
वहीं-की-वहीं आत्मग्लान

कितने तबाह हुए हैं
गृहभाव भरे
शहद के छत्तों से
मिट्टी थपे जनवासे
द्राक्षा-शर्करा के
कितने अनुशासित
कितने आश्वस्त
असमानी गुम्बद के नीचे
नमाजों की तरह झुकतीं
वे पाक इबादतगाहें
जिनसे आज भी हैं
घाटी सभ्यताओं के इतिहास
स्मृतिमय
इतनी निर्धूम शान्ति में भी लेकिन
घात तूफान की थी वह
एक प्रबल घात
जिसमें आक्षितिज ढह गये थे
मरीचिका से नज़र आते
खजूर के सान्त्वना-दीप्तिमय पेड़
जैसे हो अलिफ़लैला का कोई खौफ़नाक
विमूढ़ कर देने वाला सम्मोहन
कोई जादू
कोई इन्द्रजाल
अन्यथा जो हो रहा था सचमुच घटित
पत्थर की तरह ठोस
हवा की तरह स्पर्शमय
आग की तरह तपिश भरा
मृगजल ही था वह भागता दूर-दूर

जिजीविषा का सम्भ्रम
देता रहा ऊंटों को पानियों के संकेत
तम्बुओं को चाँद-सितारों भरी
ठण्डी सुखद रातें
जो हर अलल सुबह देता था
सुखानुभव के मारीच सा
काफ़िलों को एक सम्मोहक आश्वासन

स्मृति के गलियारे में
निरन्तर होती है आहट
उभरने लगते हैं चित्र लगातार
एक-के-बाद एक

कितनी निरीह थी
हबीबुल्ला की वह किशोर हंसी
कितने जड़ाऊ नजर आते थे
हसीन ज़ोया के दाड़िम से दांत
अफ़गानी बीवियों की
प्रश्नाकुल शुकनासिकाएं
हालांकि मैंने देखा था
अपने सिल्वर पर्दे पर
पठानी पाल्लीयों में
उन्हें घर समेटते
आंगन बुहारते
कभी कभी छाज पर बजते
चावलों की आवाज के साथ

काबुल, कन्धार, गांव, कस्बे
शुष्क मेवों के अम्बार
सब हो गये गृह-युद्ध में
अन्तर्वर्ती
कांपती आत्माएं थीं
तब यहां-वहां
नृशंस नर संहारों से स्तब्ध
भूल गयी थीं उन्हें सब
अपने बीच हुईं
मान-मनुहार की बातें
`जिन्दगी उस सरज़मीनपर
खुले आसमान तले
बन गयी थी
जमींदोज सुरंग की मानिन्द
नहीं था कहीं कोई आश्वासन का कॉरिडोर
कूटनीतिक परवशता की
रस्सियों से महफ़ूज
फिसलते रहे
श्लथ बालुका विस्तारों में सरपट
कुलीन देशों के भारी भरकम बेड़े
धातु के घाती खतरनाक बाज़
आसमान से बरसाते रहे
अग्निस्फुलिंग

उखाड़ी जा रही थी
आचार्य पाणिनी की
ऐतिहासिक समाधियां
जहां गुफाओं में भूतिगत
शुकसारी आत्माएं
कर रहीं थीं अष्टाध्यायी का पाठ
महेश के चतुर्दशसूत्र
क्रोधाग्नि से प्रज्जवलित
अपने अपने त्राटकों से रहे थे ताक
आसुरी वाहिनियों की
मायावी मारक आतिशबाजियां
खेल रही थी़ सघन अंधेरों में
क्रूर नियति के एक साथ अनेक खेल
जमीन के नीचे
आदमखोर बंकरों में
छिपकलियों की तरह
और भयग्रस्त गिलहरियां
भाग रही थीं इधर-उधर अस्त-व्यस्त
फल उद्यानों की किशमिशी जमीन पर
घबरायी, घबरायी।

नहीं जाना उन्होंने कि
हो रहा था खण्डित
सिन्धुघाटी, मोहेन्जोदड़ों का इतिहास
सामूहिक पण्विन समाज
वे भी थे जिसके रचनाकार
अपने गंधर्वरूपों में
सजाते देवताओं की महफिलें
सप्त स्वरों के शुद्ध और कोमल गांधार
जिनके बिना तंत्रियां हो जाती होंगी जड़
संगीतोत्सव मृत प्राय
सहसा सिहर उठती होंगी
जिनकी समस्वरावलियों से
देवांगनाओं की अलंकृत देहें
भरत मुद्राएं
थिरकते नूपुरों पर बज उठते होंगे
एक-साथ अनेक ताल क्रमवार

खण्डित किया जा रहा था
वह प्रतीतात्मक इतिहास
धर्म था जहां एकाधिकारी
जातीय अन्धापे से ग्रस्त
अपनी ही आत्मा की काल कोठरी में बन्दी
रातों-रात तोड़ दी गयीं
मूर्तिभंजकों द्वारा
बामयान की विराट बुद्धप्रतिमाएं
एक धर्म था बौद्ध
वह भी अनीश्वरीय
जो था निर्धूम निर्वेद का पक्षधर
जिसमें डूब गये थे तब
बर्बर हुण, पारसी, गान्धार सभी
याद नहीं उन्हें शायद
अतीत का वह वैभव
जो फैला था आसुरी बग़दाद तक
महाभारत के एक से दूसरे सम्वाद तक
जुड़ा हुआ
द्वापर की खलभंगिमा भी
तिरोहित हुई थी यहीं
गांधारी के वक्ष से

बहुत कुछ है जिसे हम कहने में
अब हुए हैं असमर्थ
असमर्थ है समय की
दो विपरीत दिशाओं की ओर उन्मुख
चट्टानों को जोड़ना
काल की दरारों से
समय का हिसाब मांगना
और पिपासु मद्यपों से
करना कहा सुनी