भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
दो पोज़ / दुष्यंत कुमार
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 10:55, 4 अप्रैल 2011 का अवतरण
सद्यस्नात<ref>इसी समय नहाई हुई, तुरन्त नहाकर आना</ref> तुम
जब आती हो
मुख कुन्तलों<ref>केश, बाल</ref> से ढँका रहता है
बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब
राहू से चाँद ग्रसा रहता है ।
पर जब तुम
केश झटक देती हो अनायास
तारों-सी बूँदें
बिखर जाती हैं आसपास
मुक्त हो जाता है चाँद
तब बहुत भला लगता है ।
शब्दार्थ
<references/>