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रात की मकड़ी / सौरीन्द्र बारिक
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रात की मकड़ी
पहले बुनती है अन्धकार का जाल
फिर उस जाले में फँस जाती है
कई निरीह तारिकाएँ
तड़पती हैं,
तड़पती रहती हैं।
किन्तु मेरे मन की मकड़ी
बुन रही है हताशा का जाल
और उसमें फँस जाते हैं
कोई कोमल स्वप्न व्यथा के
वेदना के।