भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

दिन चार ये रहें / अनूप अशेष

Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:50, 4 नवम्बर 2009 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

दोपहर कछार में रहें
दिन मेरे चार ये रहें।

महुआ की कूँचों से
गेहूँ की बाली तक,
शाम की महकती
करौंदे की डाली तक।
आँगन कचनार के रहें
दिन मेरे चार ये रहें।

सारस के जोड़े
डोलें अपने खेत में,
हंसिए के पाँवों
उपटे निशान रेत में।
बाँहें आभार को गहें
दिन मेरे चार ये रहें।।

छोटी-सी दुनिया
दो-पाँवों का खेलना,
गमछे में धूल भरे
अगिहाने झेलना।
पुटकी को प्यार से गहें
दिन मेरे चार ये रहें।।