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पाठक की निगाह / आशुतोष दुबे
Kavita Kosh से
कभी आप लिखते हैं कोई ख़त
कभी निजी डायरी
कभी महीने के खर्च का हिसाब
कभी-कभी कविताएँ भी
कभी आपको लिखना पड़ता है
स्पष्टीकरण
कभी आप बनाते हैं
किसी क्षमा-पत्र का मसौदा
फिर अचानक एक दिन पढ़ने पर
अपनी लिखी चिट्ठी
किसी भूल की तरह लगती है
खर्च का हिसाब भयभीत कर देता है
कविताएँ घोर असंतोष से भर देती हैं
निजी प्रसंगों पर निजी टिप्पणियाँ
व्याकुल कर देती हैं भीतर ही भीतर
स्पष्टीकरण के कच्चे मसौदे
भर देते हैं अपराध-बोध और ग्लानि भाव से
फिर आप उधेड़ने लगते हैं
अपने बुने हुए को
और लच्छियों को उलझने से बचाना
एक मुश्किल काम होता है
देखा आपने,
चीज़ें किस तरह बदलती हैं
पाठक की निगाह से देखने पर।