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यादों की गंध / किशोर काबरा
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शब्दों का कद कितना छोटा है
फिर भी वे
नाप रहे कब से वेदांत।
झरता है बादल से नीला आकाश
पेड़ों की अंजुरी से
रिसती है धूप
सूरज की भाषा को कौन पढ़े?
सूर्यमुखी
उपवन में दिखता एकांत।
लोकगीत ओढ़े शरमाते हैं खेत,
तारों से
गुपचुप बतियाते खलिहान
मौसम के कानों में पहनाकर बात
लौटा है
परदेसी प्रांत।
कासों के वन में हैं यादों की गंध,
घाटी में
गर्भवती ध्वनियों के गाँव
जोहड़ में फेंक मरी मछली को
काँटे में फाँस रहा
तट का विश्रांत।