भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

हो सकता है / ताहा मुहम्मद अली

Kavita Kosh से
Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 02:08, 6 अप्रैल 2011 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

पिछली रात
सपने में
देखा मैंने खुद को मरते हुए।

मौत खड़ी थी बिल्कुल सामने मेरे
आँखों से आँखें मिलाए
बड़ी शिद्दत से महसूस किया मैंने
कि सपने के अंदर ही है यह मौत।

सच तो यही है-
मुझे मालूम नहीं था पहले
कि मौत अपनी
अनगिनत सीढ़ियों से
बहकर उतर आएगी इतनी तरलता से:
जैसे धवल, गुनगुनी
प्रशस्त और मोहक काहिली
या सुस्ती की उनींदी कर देने वाली अनुभूति।

आम बोल-चाल में कहें
तो इसमें क्लेश नहीं था
न ही था कोई भय;
हो सकता है
मौत को लेकर
हमारे भय के अतिरेक की जड़ें
जीवन-लालसा के उद्वेग में
धँसी हुई हों गहरी-
हो सकता है
कि हो ऐसा ही।

पर मेरी मौत में
एक अनसुलझा पेंच है
जिसके बारे में विस्तार से
अफसोस कि मैं बता नहीं पाऊंगा-
कि सहसा उठती है सिहरन पूरे बदन में
जब बोध होता है पक्का
अपने मरने का-
कि अब अगले ही पल अन्तर्धान हो जाएंगे
हमारे प्रियजन
कि हम नहीं देख पाएंगे उन्हें अब कभी भी
या कि सोच भी न पाएंगे
अब कभी उनके बारे में।

अंग्रेज़ी से अनुवाद : यादवेन्द्र