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पर्दा हट जाता है / सुनील गंगोपाध्याय

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पर्दा हट जाता है
देखता हूँ दूर अंधेरी स्मृति के उस पार हैं
सैकड़ों कारागार, कालिख जाते और धुएँ से भरे
या फिर पूजा के घण्टे अथवा मदिर लास्य गीतों से,
ये ऐसे कारागार कि जहाँ प्रहरीवृन्द बड़े मज़ाकिया हैं
शब्दों के आह्लाद में वे लाते हैं लोहे के बदले सोने की बेड़ियाँ।
पर्दा हट जाता है
देखता हूँ, एक झूठे समाज में
झूठे कुनाट्य-रंग में विह्वल है पूर्व और पश्चिम बंगाल
जूठन खाने वाले जुटे हैं लालच की प्रतियोगिताओं में
विज्ञ और भाण्ड व्याकुल हो भूमिकाएँ बदल लेते हैं।
पर्दा हट जाता है
देखता हूँ, समस्त दृश्यों को पार कर एक अलग-सी रोशनी...
डर और रोना छोड़कर ग़रीब लोग निकल पड़े हैं राजपथ पर
ख़ून के प्यासों के ही वंश से उठ आया है कोई असली महान रक्तदाता...
सप्तरथियों से घिरा किन्तु घोर युद्ध में फिर भी शामिल
बौना अकेला ब्राह्मण,
एक-एक कर दीवारें गिर रही हैं
हू-हू कर घुस रही है स्वच्छ हवा
कुछ ग्लानि पोंछकर...
उन्नीसवीं सदी करवट बदलकर सो जाती है।


मूल बंगला से अनुवाद : उत्पल बैनर्जी