भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छोटे शहर की एक दोपहर/ केदारनाथ सिंह
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:01, 25 सितम्बर 2009 का अवतरण
हज़ारों घर, हज़ारों चेहरों-भरा सुनसान -
बोलता है, बोलती है जिस तरह चट्टान
सलाखों से छन रही है दोपहर की धूप
धूप में रखा हुआ है एक काला सूप
तमतमाए हुए चेहरे, खुले खाली हाथ
देख लो वे जा रहे हैं उठे जर्जर माथ
शब्द सारे धूल हैं, व्याकरण सारे ढोंग
किस क़दर खामोश हैं चलते हुए वे लोग
पियाली टूटी पड़ी है, गिर पड़ी है चाय
साइकिल की छांह में सिमटी खड़ी है गाय
पूछता है एक चेहरा दूसरे से मौन
बचा हो साबूत -- ऎसा कहां है वह-- कौन?
सिर्फ़ कौआ एक मडराता हुआ - सा व्यर्थ
समूचे माहौल को कुछ दे रहा है अर्थ