भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
घिसी पैंसिल / रघुवीर सहाय
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 00:49, 8 मार्च 2010 का अवतरण
फिर रात आ रही है
फिर वक़्त आ रहा है
जब नींद दुःख दिन को
संपूर्ण कर चलेंगे
एकांत उपस्थित हो,'सोने चलो' कहेगा
क्या चीज़ दे रही है यह शांति इस घड़ी में ?
एकांत या कि बिस्तर या फिर थकान मेरी ?
या एक मुड़े काग़ज़ पर एक घिसी पैंसिल
तकिये तले दबा कर जिसको कि सो गया हूं ?