भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
छाँह में झुलसे जले / कविता वाचक्नवी
Kavita Kosh से
Kvachaknavee (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 19:50, 25 जून 2010 का अवतरण (वर्तनी व फ़ॉर्मेट सुधार)
छाँह में झुलसे जले
एक साया
तमतमाया
बोलता
लो तप जरा
और हम
पेड़ों तले भी
छाँह में
झुलसे जले -
साथ सोए स्वप्न को
पल-पल झिंझोड़ा,
देखा उनींदी आँख से
औ’ सकपकाए।
बाँह धर कर
स्वप्न ने
कुछ पास खींचा,
आँख का
अंजन नहीं हूँ
स्वप्न हूँ
मत आँख खोलो।
कल्पदर्शी चक्षु का
अविराम नर्तन
तरलता के बीच
पल-पल
थिरकता है
और छाया को
तपन के
ताड़नों से
हेरता है।