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कबँ मिलिबो कबँ मिलिबो / बोधा

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कबहूँ मिलिबो, कबहूँ मिलिबो, यह धीरज ही मैं धरैबो करै।
उर ते कढ़ि आवै गरै तें फिरै, मन की मनहीं मैं सिरैबो करै॥
'कवि बोधा' न चाउसरी कबहूँ, नित की हरवा सो हिरैबो करै।
सहते ही बनै, कहते न बनै, मन ही मन पीर पिरैबो करै॥