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फुटकर शे’र / नज़्म तबा तबाई

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न शोख़ी क हया की वज़अ़ में अब फ़र्क़ आता है।

गु़बार ऊँचा न हो जाय कहीं हम ख़ाकसारों का॥


लिहाज़ इतना अभी तक हज़रते-नासेह का बाकी़ है।

वो जो कुछ हुक्म फ़रमाते हैं, कह देते हैं हम ‘अच्छा’॥


बंदा तो इस इक़रार पे बिकता है तेरे हाथ।

लेना है अगर मोल तो आज़ाद न करना॥


इस छेड़ में कोई जो न मरता है तो मर जाये।

वादा है कहीं और, इरादा है कहीं और॥


क़ाबू से नफ़से-बद को निकलने कभी न दे।

फिर शेर है, जो यह सगे-दीवाना छुट गया॥


लाय़ा है कोई साथ, न ले जायेगा कोई।

दौलत हो और आदते-अहसाँ न हो, तो क्या?


आँखों में पड़के कहती है यह ख़ाके-रफ़्तगाँ।

"सुर्मा ज़रूर दीदये-इबरत में चाहिए"॥


न देख अन्दाज़ आईने में अपना, पूछ ले हमसे।

ज़माने भर से अच्छा और तेरे सर की क़सम अच्छा॥