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तीसरे दिन / रमेश रंजक

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मुझे हर तीसरे दिन
तीलियों का पुल बुलाता है
शाम कहती है- कहो क्या बात है?
एक शीशा टूट जाता है

बिखर जाती हैं सितारों की तरह किरचें
(नंगे) पाँव डरते हैं
और उड़-उड़कर क़िताबों के नए पन्ने
मना करते हैं
बदन सारा कसमसाता है

धूल में मैली हुई है
पर न मैली हुई जो मन से
झाँकती है जब कभी तस्वीर वह
कभी खिड़की, कभी आँगन से
नींद की दो डोरियों के बँधे पाँवों में
कौन है जो थरथराता है ?
एक शीशा टूट जाता है।