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स्नेह-रीति / सियाराम शरण गुप्त

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"दीप, तू जागृत रहा है रात भर
और मैं बेसुध पड़ा सोता रहा।
हाय, अत्याचार यह निज गात पर,
स्नेह - सह तू प्रज्ज्वलित होता रहा।"

"प्रज्वलित होता रहा, अच्छा हुआ,"
दीप बोला - "जागना मेरा सफल।
अब सुजागृति ने तुझे आ कर छुआ,
पा सकूँगा सुप्ति-सुख मैं भी विमल!"