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शरद की हवा / गिरधर गोपाल
Kavita Kosh से
शरद की हवा ये रंग लाती है,
द्वार-द्वार, कुंज-कुंज गाती है।
फूलों की गंध-गंध घाटी में
बहक-बहक उठता अल्हड़ हिया
हर लता हरेक गुल्म के पीछे
झलक-झलक उठता बिछुड़ा पिया
भोर हर बटोही के सीने पर
नागिन-सी लोट-लोट जाती है।
रह-रह टेरा करती वनखण्डी
दिन-भर धरती सिंगार करती है
घण्टों हंसिनियों के संग धूप
झीलों में जल-विहार करती है
दूर किसी टीले पर दिवा स्वप्न
अधलेटी दोपहर सजाती है।
चाँदनी दिवानी-सी फिरती है
लपटों से सींच-सींच देती है
हाथ थाम लेती चौराहों के
बाँहों में भींच-भींच लेती है
शिरा-शिरा तड़क-तड़क उठती है
जाने किस लिए गुदगुदाती है।