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सत्य / अंतराल / महेन्द्र भटनागर

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दीप जलता है नहीं, यह
स्नेह का सागर रहा जल !

ज्ञान, संस्कृति, मनुज-दर्शन,
ध्येय, जन, साहित्य, जीवन
सब बदलते जा रहे, अविराम गति से पग मिला कर,
युग नहीं चलते कभी भी
आदमी केवल रहे चल !

रात-दिन अविश्रांत नर्तन,
ग्रीष्म-वर्षा, फिर शिशिर-क्षण,
एक के उपरांत आकर, हैं सदा करते युगान्तर,
शून्य में अविचल प्रभाकर,
भूमि ही गतिशील प्रतिपल !

ज़िन्दगी क्या ? एक हलचल,
मूक-जड़ता में रही पल,
है शिथिल,उत्साह दुर्दम, वेग गति, रुक-रुक, सरल,दृढ़,
मुक्त बहता है न जीवन ;
सिर्फ़ बहती धार चंचल !

रचनाकाल: 1946