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असह / विहान / महेन्द्र भटनागर
Kavita Kosh से
अब न रहा जाता!
प्रिय दूभर जीना;
मूक हृदय-वीणा,
आघात समय का
अब न सहा जाता!
करुण कथा कितनी,
गरल व्यथा कितनी,
लय में छंदों में
अब न कहा जाता!
जीवित नेह कहाँ?
सुन्दर गेह कहाँ?
मन दुख-सरिता में
अब न नहा पाता!
हैं मौन सुखद स्वर,
जीवन शांत लहर,
बीहड़ पथ से रे
अब न बहा जाता!
रचनाकाल: 1945