भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

स्त्री है मोहताज / संध्या पेडणेकर

Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 20:39, 1 मार्च 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

अपने आप में संपूर्ण बीज
बीज में कोंपल
अनंत संभावनाएँ
बेल या वृक्ष
फूल, फल यानी
अनंत संतृप्ति
लेकिन बीज है मोहताज

बीज है मोहताज
मिटटी का
पानी का
हवा का
धूप का
सब मिले तो
संभावनाओं का सफ़र
संतृप्ति तक पहुँच कर
सार्थक होता है
वर्ना
बीज नष्ट भी होता है
चूहे खा जाते हैं
सीलन सड़ाती है
उगी हुई कोंपलें
मिटटी की चद्दर पर पड़े भारी पैरों तले
रौंद जाती हैं
धरती पर उगी कोंपलों को
सूरज झुलसा देता है
पानी गला देता है
हवा हमेशा के लिए सुला देती है


और संतृप्ति का एक सफ़र
शुरू होने से पहले ही
समाप्त हो जाता है।
इसी तरह
मोहताज है ज़िंदगी तेरी
प्रेम की, अपनत्व की
गर्भ में प्रत्यारोपण के के पूर्व से
मृत्यु की देहलीज तक
हर क्षण तेरे जीवन का
संतृप्ति पा सकता है अगर
उसे प्रेम और अपनत्व मिले
पर क्या यह सच है?
हर एक की ज़िंदगी
इत्तेभर की मोहताज नहीं होती
औरत जात की तो हरगिज नहीं!!!
रौंदे जाने की दहशत का
उसे हर पल सामना करना पड़ता है
गर्भ में प्रवेश के क्षण से लेकर
अर्थी पर चढ़ने तक

उसका पूरा अस्तित्व ही मोहताजी है
हर चीज़ का मोहताजी
बोलने की छूट का
सोच की आज़ादी का
हँसने के सुख का
रोने के हल्केपन का
खुले गले से तान लेने का
दबी जुबान में गुस्सा करने का
पैदा होते ही लादा जाता है बोझ
घराने की इज़्ज़त का
बाप की अपेक्षाओं का
भाई की उम्मीदों का
पुत्र की और पति की अपेक्षाओं का
ज़िम्मा दिया जाता है
रिश्तों को निभाने का
ज़माने की रीत को निभाने का
वह मोहताज है
समाज में रहते हुए समाज से बचने को
नज़र न उठाते हुए नज़रों से बचने को
बुरा न बोलते हुए बुराई से बचने को
नियम, क़ायदे, कानून सब
उसके ही बलबूते पलते हैं
मुन्नी हो या मुन्नी की नानी हो
सब होती हैं जवाबदेह
मुन्ने को और मुन्ने के नाना को
कब जाती है
कहाँ जाती है
क्यों जाती है
कब आती है
क्या करती है
क्यों करती है
किससे पूछ कर करती है
क्या खाती है
क्या पीती है
कितना खाती है
कितना पीती है?
कितना कमाती है?
कितना ओढ़ती है?
कितना छोड़ती है?
नौकरी से दहेज़ से
सुकुमार देह से या झुर्रियों के जाले से
कितना कमाती है?
कमाई होनी चाहिए लेकिन
ख़र्चा बिलकुल नहीं
औरत को बस
दो जून रोटी मिले
दो जोड़ी कपडा मिले
पैर में जूती और
सर पर छत मिले
और क्या चाहिए?
और इन सब चीज़ों के लिए भी
वह मोहताज तो है ही
बिना कमाई के भी और अपनी कमाई के साथ भी
आज़ाद भारत की विदुषी नारी हो
या ठेठ गाँव की गोरी हो
आधे हाथ का घूँघट काढ़े हो या
अधनंगी देह लिए घूमती हो
नियति सबकी एक है
ज़िन्दगी स्त्री की मोहताज है
पुरुष की मर्ज़ी की
घर टिके हैं
मोहताजी की उनकी स्वीकृति पर
सिसकती आत्मा से
पंक्ति में आख़िरी स्थान देने पर
झुक-झुक कर जी हज़ूरी करने पर
स्त्री दुर्गा है, स्त्री काली है
स्त्री सीता है, स्त्री मंदोदरी है
झाँसी की रानी भी है
कृष्ण की दीवानी भी है
इंदिरा गाँधी भी है और उसकी बहू भी है
इन गिनी-चुनी मिसालों को छोड़ दें तो
आज भी
जीवन भारतीय नारी का
मोहताज है

लेकिन

एक दिन वह अपना
लिहाज़ का चोला उतार कर
अस्मिता का खडग उठा लेगी
आत्मविश्वास के अश्व पर सवार होकर
सब कुछ अपने मुआफ़िक बनाने निकलेगी तो
सारे मील के पत्थर
हरहराकर गिर जाएँगे
मोहताज नहीं रहेगी उसकी भी ज़िंदगी
वह दिन भी आएगा!