Last modified on 7 मार्च 2010, at 12:13

जी ही लेती है/ चंद्र रेखा ढडवाल

सुबह को
कुछ और सुबह करते
रात को
कुछ और गहराते
मर्द जीता है
सब कुछ के बीच में से
गुज़रते हुए इत्मिनान से
 ***
उजाले / अँधेरे से
लुका-छिपी करती
सब कूच को बस
छू कर निकल जाती

पानी पर बनी लकीरें मिटाती
और भी
जी ही लेती है