सुबह को
कुछ और सुबह करते
रात को
कुछ और गहराते
मर्द जीता है
सब कुछ के बीच में से
गुज़रते हुए इत्मिनान से
***
उजाले / अँधेरे से
लुका-छिपी करती
सब कूच को बस
छू कर निकल जाती
पानी पर बनी लकीरें मिटाती
और भी
जी ही लेती है
सुबह को
कुछ और सुबह करते
रात को
कुछ और गहराते
मर्द जीता है
सब कुछ के बीच में से
गुज़रते हुए इत्मिनान से
***
उजाले / अँधेरे से
लुका-छिपी करती
सब कूच को बस
छू कर निकल जाती
पानी पर बनी लकीरें मिटाती
और भी
जी ही लेती है