Last modified on 4 मई 2010, at 09:54

आषाढ़ तो आया / जीवन शुक्ल

डा० जगदीश व्योम (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 09:54, 4 मई 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

आषाढ़ तो आया
घास नहीं
हो उठी झरबेरी
हरी हरी।

हथेलियाँ पसार दीं
शूलों पर वार दीं
टुकड़े हो टूट पड़ा
आसमान धरती पर
घूँघट में धूल की
कल तक थी डरी डरी
आज है हरी हरी ।

कैसे क्या ले आऊँ
सूनापन भर जाऊँ
रुकती नहीं है
गति ये कलेण्डर की
ओ रे पहुना रे घन !
कमरव की आँखें हैं
भरी भरी
हो उठी झरबेरी
हरी हरी।