भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
बचते-बचते थक गया / नवीन सागर
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:26, 5 मई 2010 का अवतरण
दिन रात लोग मारे जाते हैं
दिन रात बचता हूँ
बचते-बचते थक गया हूँ
न मार सकता हूँ
न किसी लिए भी मर सकता हूँ
विकल्प नहीं हूँ
दौर का कचरा हूँ
हत्या का विचार
होती हुई हत्या देखने की लालसा में छिपा है
मरने का डर सुरक्षित है
चाल-ढाल में उतर गया है
यह मेरी अहिंसा है बापू!
आप कहेंगे
इससे अच्छा है कि मार दो
या मारे जाओ।
किसे मार दूँ
मारा किस से जाऊँ
आह! जीवन बचे रहने की कला है।