भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

डिठौना / मनोज श्रीवास्तव

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

डिठौना

जब भी काजल आँजा
लाल की आँखों में
उजाले भाल पर टीप दिया
डिठौना...
डाहती बुरी नज़रों से
टोने-टोटकों, भुतही हवाओं से
कलेज़े को सुरक्षा कवच
पहनाने के लिए

ममता-भरा मन
जुड़ा गया
हुलसा-हरसा गया

ग़लचौरा-बतकही जी-भर की
मनासेधुओं का नैं-मटक्का भी झेला
खेत-खलिहानों में मजूरी कराते हुए भी
निश्चिन्त रही सारे दिन,
बबुआ खेलता रहा
भयानक खोहों-बिलों के इर्द-गिर्द
घुटनों-हथेलियों से लिसढ़कर
यात्रा करता रहा
झरबेरियों के जंगल में
कई बार साँप छूकर चला गया
गोज़र-बिच्छी उसके बदन पर रेंग गए
और जब साँझ भए
वह माई के कोरा में लपका
तो पहले से ज्यादा खिलखिलाया

ममता के मज़बूत अंगूठे ने
उसके मटमैले माथे पर
फिर, बरबस टीप दिया
डिठौना...
गालों पर असंख्य चुम्बन अंकित किए
हथेलियाँ कानों के पास घुमाकर
उसकी चिरायु की कामना की

माँ!
अपने स्वर्गस्थ हाथ निकालकर
मेरे प्रौढ़ भाल पर टीप दो
अमिट डिठौना का अमर छाप
और तितिक्षाओं से भर दो
मेरा मनोबल कि मैं
लड़ सकूं
अपनी उम्र और देह से बाहर भी
और दे सकूं
झुलसे-झुराए जगत को
संतोष का अक्षत वरदान

माँ! तुम
संसार के माथे पर भी
टीप दो एक अमिट डिठौना
और दे दो इसे
अभयदान!