भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

काहे करी सगाई बाबा / राजेन्द्र स्वर्णकार

Kavita Kosh से
Shrddha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:20, 14 जून 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

हमसे कौन लड़ाई बाबा ?
हो अब तो सुनवाई बाबा !

सबकी सुनता, हमरी अब तक
बारी क्यों न आई बाबा ?

हमसे नाइंसाफ़ी करते '
तनिक रहम न खाई बाबा ?

इक बारी में कान न ढेरे
कितनी बार बताई बाबा ?

बार-बार का बोलें ? सुसरी
हमसे हो न ढिठाई बाबा !

नहीं अनाड़ी तुम कोई; हम
तुमको का समझाई बाबा ?

दु:ख से हमरा कौन मेल था,
काहे करी सगाई बाबा ?

बिन बेंतन ही सुसरी हमरी
पग-पग होय ठुकाई बाबा !

तीन छोकरा, इक घरवाली,
है इक हमरी माई-बाबा !

पर… इनकी खातिर भी हमरी
कौड़ी नहीं कमाई बाबा !

बिना मजूरी गाड़ी घर की
कैसन बता चलाई बाबा ?

हमरा कौनो और न जग में
हम सबका अजमाई बाबा !

न हमरा अपना भैया है,
न जोरू का भाई, बाबा !

और मुई दुनिया आगे हम
हाथ नहीं फैलाई बाबा !

जानके भी अनजान बने, है
इसमें तो'र बड़ाई बाबा ?

नींद में हो का बहरे हो ? हम
कितना ढोल बजाई बाबा ?

हम भी ज़िद का पूरा पक्का
गरदन इहां कटाई बाबा !

तुम्हरी चौखट छोड़' न दूजी
चौखट हम भी जाई बाबा !

कहदे, हमरी कब तक होगी
यूं ही हाड-पिंजाई बाबा ?

बोल ! बता, राजेन्द्र में का है
ऐसन बुरी बुराई बाबा