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अँधेरे ने किया अभयदान / मनोज श्रीवास्तव
Kavita Kosh से
Dr. Manoj Srivastav (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 11:53, 30 जून 2010 का अवतरण
अँधेरे ने किया अभयदान
रोशनी हमें बाँट देती है
टुकड़ों-टुकड़ों में,
बेतरतीब बिखेर-छींट देती है,
इतनी क्रूरता से पटककर
छितरा देती है
कि असंभव हो जाता है
अपने हिज्जे-हिज्जे समेटना
और खुद में वापस आना
अँधेरा हमें लौटा देता है
हमें और हमारे टुकड़ों को जोड़ देता है,
हमारे बिखराव को
अपनी मुट्ठी में समेट
हमें साकार और ठोस रहने देता है,
बड़े लाड़-दुलार से
छिपा लेता है--
अपनी गरम-गरम गोद में--
दुनियावी नज़रों से बखूबी बचाकर
अँधेरे को भुतहे ख्यालों से
अलग कर दो
उससे अच्छा मित्र कहाँ मिलेगा
उसकी पालथी में बैठ
हम रोएँ या बौखलाएं,
सिर और छाती पीट-पीट
तड़पें या मर जाएं,
मजाल क्या कि
कोई हमारी खिल्ली उड़ा सके.