भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
काग़ज़ का टुकड़ा / अवनीश सिंह चौहान
Kavita Kosh से
अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:09, 30 जून 2010 का अवतरण
उठता-गिरता-मुड़ता जाए
इक काग़ज़ का टुकड़ा
कभी पेट की चोटों को
भर आँखों में लाता
बाहर आ कभी होठ से
मन की पीड़ा गाता
अंदर-अंदर कुढ़ता जाए
इक काग़ज़ का टुकड़ा
कभी फ़सादों में उलझा
तकली बनकर नाचे
टूटे-फूटे शीशों में
अपने चेहरे बाँचे
घटनाओं से जुड़ता जाए
इक काग़ज़ का टुकड़ा
कभी कोयले-सा जलता
राख बना तो रोया
माटी में मिल जाने पर
सदा-सदा को सोया
हल चलने पर गुड़ता जाए
इक काग़ज़ का टुकड़ा