Last modified on 2 अगस्त 2010, at 12:02

खाल के नीचे / अजित कुमार

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 12:02, 2 अगस्त 2010 का अवतरण

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

संकट के क्षण में
सियाही खड़े कर लेटी है अपने काँटे,
गुबरैला छोड़ता है दुर्गन्ध,
बिल्ली गुर्राकर फैलाती है पंजे...

इतनी हिंसा है जग में,
इतने ज़्यादा ख़तरे !
काश !
नाख़ून की एक पतली-सी झिल्ली
ढक सकती मुझे भी...
सख़्त, निर्मम इरादों,
क्रूर ठंडी निगाहों,
लगातार प्रहारों से कुछ तो बच पाता !

नाख़ून !
तुम बाहर नहीं,
अंदर की ओर बढ़ो !
घोंघों की तरह
मुझे भी ढको, मुझे मढ़ो !

ओ नाख़ून !
मेरी खाल के नीचे
बिछा दो एक अनदेखी पर्त !