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अस्तोदय की वीणा / रामनरेश त्रिपाठी

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बाजे अस्तोदय की वीणा-क्षण-क्षण गगनाँगन में रे,
हुआ प्रभात छिप गए तारे, संध्या हुई भानु भी हारे,
यह उत्थान पतन है व्यापक प्रति कण-कण में रे ।
 
ह्रास-विकास विलोक इंदु में, बिंदु सिन्धु में सिन्धु बिंदु में,
कुछ भी है थिर नहीं जगत के संघर्षण में रे ।

ऐसी ही गति तेरी होगी, निश्चित है क्यों देरी होगी,
गाफ़िल तू क्यों है विनाश के आकर्षण में रे ।
 
निश्चय करके फिर न ठहर तू, तन रहते प्रण पूरण कर तू,
विजयी बनकर क्यों न रहे तू जीवन-रण में रे ?