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श्यामला / प्रतिभा सक्सेना

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ईषत् श्यामवर्णी,
उदित हुईं तुम
दिव्यता से ओत-प्रोत
अतीन्द्रिय विभा से दीप्त
मेरे आगे प्रत्यक्ष .

मैं, अनिमिष-अभिभूत-
दृष्टि की स्निग्ध किरणों से
अभिमंत्रित, आविष्ट .
कानों में मृदु-स्वर-
'क्या माँगती है, बोल ?'

द्विधाकुल हो उठा मन -
पल-पल बदलती दुनिया
और चलती फिरती इच्छाएँ
जो कल थी आज नहीं .
जो हूँ, आगे नहीं .
काल- जल में बहता
निरंतर बनता-बिगड़ता प्रतिबिंब -मैं,
क्या माँगूँ ?

क्या माँगूँ -
सुख, यश, धन बल .सब बीत जाएँगे,
परछाइयाँ, जिन्हें समझना मुश्किल,
पकड़ना असंभव
मन के घट और रीत जाएँगे

क्या माँगू, इन सर्वसमर्थ्यमयी से ?
जैसे सम्राट् अबोध ग्राम्य बालक से
अचानक पूछे, 'बोल, क्या चाहिए '?
क्या बोलेगा विमूढ़ बेचारा,
कहाँ तक विस्तारेगा लघुता अपनी!
क्या बोलूँ मैं?

स्निग्ध कान्ति में डूबा,
इन्द्रियातीत हो उठा मन, मौन .
अनायास जागा अंतरस्वर -
'जन्म-जन्मान्तर तक
मेरी आत्मा का कल्याण करों माँ,
तुम्हीं जानो! '

करुणार्द्र नयन-कोरों से थाहतीं
तुम रुकी रहीं कुछ क्षण,
मंद स्मिति आनन पर झलकी,
'तो, मैं चलती हूँ, पुत्री.’

पुत्री ?
पुत्री कहा तुमने ?
मुझे?
क्या शेष रहा अब.,
कृतार्थ मैं!

'बस, आश्वस्त करती रहना,
 हर विचलन में, माँ,
कि सिर पर हाथ तुम्हारा है!'
तुम अंतर्धान हो चुकीं थीं .

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