उज्र आने में भी है ओर बुलाते भी नहीं
बाइस-ए- तर्क-मुहब्बत बताते भी नहीं
ख़ूब पर्दा है कि चिलमन से लगे बैठे हैं
साफ़ छुपते भी नहीं सामने आते भी नहीं
हो चुका क़ता तअल्लुक़ तो जफ़ाएं क्यों हों
जिनको मतलब नहीं रहता वो सताते भी नहीं
ज़ीस्त से तंग हो ऐ 'दाग़' तो जीते क्यों हो
जान प्यारी भी नहीं जान से जाते भी नहीं