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जान लेकर मैं हथेली पे चला करता हूँ / डी .एम. मिश्र

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जान लेकर मैं हथेली पे चला करता हूं
अपने दुश्मन पे मगर पूरी नज़र रखता हूं

फूंककर पांव दोस्तो चमन में रखता हूं
कोई पत्ता न कहीं टूट जाय डरता हूं

हर किसी को तो अपना दिल मैं नहीं दे सकता
हर किसी के लिए पर , दिल में जगह रखता हूं

लोग खुश हों कि खफा हों कोई परवाह नहीं
दिल जो कहता है सही सिर्फ़ वही करता हूं

सात परतों के तले ग़म जो दबाये बैठे
उन लबों की मैं मुस्कराहटों पे मरता हूं

सामने फूल गर तो सर पे हथौड़ा भी है
पत्थरों , सुन लो हक़ीक़त बयान करता हूं