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मेरे प्रेम दिये को भाता तेरा अँगना था / 'सज्जन' धर्मेन्द्र

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मेरे प्रेम दिये को भाता तेरा अँगना था।
शायद किस्मत में तेरे होंठों से बुझना था।

मुझे पिलाकर लूट लिया जिसने वो गैर नहीं,
मेरे दिल में रहने वाला मेरा अपना था।

जाने से पहले वो सीने से लग के रोई,
सच था वो लम्हा या कोई दिन का सपना था।

छोड़ गए सब रहबर साथ मेरा बारी बारी,
मैं था एक मुसाफिर मुझको फिर भी चलना था।

अब ज़िंदा हूँ या मुर्दा ये कहना मुश्किल है,
प्यार न देती गर विष में वो तब तो मरना था।

फ़र्क़ नहीं था जीत हार में कहता है ‘सज्जन’,
अपने दिल के टुकड़े से ही उसको लड़ना था।