Last modified on 11 फ़रवरी 2009, at 15:39

अब सबके अहाते में अपने हैं राम / अविनाश

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 15:39, 11 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अविनाश |संग्रह= }} <Poem> बजाते हैं नौकरी उठाते हैं ज...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

बजाते हैं नौकरी उठाते हैं जाम
मेरी नौज़वानी को बारहा सलाम

थके गाँव के मेरे बूढ़े हितैषी
जो कहते कमाया है मैंने बहुत नाम

वो भी...जो बचपन के हमउम्र हमराज़
बेरोज़गारी में काटे हैं सब शाम

कि मुन्‍न तू अब तो बड़ा आदमी है
कहीं भी लगा दो दिला दो कोई काम

मैं गाहे ब गाहे कई रेल चढ़ कर
हुलस कर जो जाता हूँ अपने ही गाम

तो दुपहर का सूरज कसाई-सा लगता
और बेमन बगीचे में सुस्‍वादु आम

नदी थी किनारे लबालब लबालब
दिखती वहाँ अब हैं रेतें तमाम

दो एक दिन जैसे बरसों का बोझा
सुकून ओ अमन का कहां है मुकाम

मेरे बोल शहरी तो ऐसे ही फूटें
बोली वो काकी और कक्‍का बलराम

मगर सच है सौ फीसदी पहले थे सबके
अब सबके अहाते में अपने हैं राम

अब रूक कर बदलना बड़ी बात होगी
मैं शहरी...शहर में है अपनी दुकान

वहीं बैठ कर गीत लिक्‍खा करेंगे
कि रौशन है दुनिया, मेहनतकश अवाम !