तुम्हेँ याद है क्या उस दिन की
नए कोट के बटन होल मेँ,
हँसकर प्रिये, लगा दी थी जब
वह गुलाब की लाल कली ?
फिर कुछ शरमा कर, साहस कर,
बोली थीँ तुम- "इसको योँ ही
खेल समझ कर फेँक न देना,
है यह प्रेम-भेँट पहली!"
कुसुम कली वह कब की सूखी,
फटा ट्वीड का नया कोट भी,
किन्तु बसी है सुरभि ह्रदय मेँ,
जो उस कलिका से निकली !
(फरवरी १९३७, 'प्रवासी के गीत' काव्य-संग्रह से)