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शब्दों से परे / वीरेंद्र मिश्र


शब्दों से परे-परे

मन के घन भरे-भरे


वर्षा की भूमिका कब से तैयार है

हर मौसम बूंद का संचित विस्तार है

उत्सुक ॠतुराजों की चिंता अब कौन करे


पीडा अनुभूति है वह कोई व्यक्ति नहीं

दुख है वर्णनातीत संभव अभिव्यक्ति नहीं

बादल युग आया है जंगल है हरे-हरे


मन का तो सरोकार है केवल याद से

पहुंचते हैं द्वार-द्वार कितने ही हादसे

भरी-भरी आंखों में सपने है डरे-डरे