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तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब / अकबर इलाहाबादी

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तअज्जुब से कहने लगे बाबू साहब
गौरमेन्ट सैयद पे क्यों मेहरबाँ है

उसे क्यों हुई इस क़दर कामियाबी
कि हर बज़्म में बस यही दास्ताँ है

कभी लाट साहब हैं मेहमान उसके
कभी लाट साहब का वह मेहमाँ है

नहीं है हमारे बराबर वह हरगिज़
दिया हमने हर सीग़े का इम्तहाँ है

वह अंग्रेज़ी से कुछ भी वाक़िफ़ नहीं है
यहाँ जितनी इंगलिश है सब बरज़बाँ हैं

कहा हँस के 'अकबर' ने ऎ बाबू साहब
सुनो मुझसे जो रम्ज़ उसमें निहाँ हैं

नहीं है तुम्हें कुछ भी सैयद से निस्बत
तुम अंग्रेज़ीदाँ हो वह अंग्रेज़दाँ है

शब्दार्थ :
गौरमेन्ट= गवर्नमेन्ट;
बज़्म= सभा;
दास्ताँ=कथा;
मेहमाँ=अतिथि;