Last modified on 14 नवम्बर 2008, at 21:00

अर्द्धसमाप्त जीवन / अजन्ता देव

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 21:00, 14 नवम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अजन्ता देव |संग्रह= }} <Poem> क्या यही मृत्यु है जबकि ...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

क्या यही मृत्यु है
जबकि सब-कुछ रह गया पहले सा
मैं भी मेरा जीवन भी
रह गया लोकस्मृति में

आशा रह गई पुनर्जन्म की
खीज रह गई कुछ नहीं पाने की
शरीर गया पर रह गया अशरीर
पृथ्वी रह गई विहंगम कोण से दिखती हुई
रह गई पिपासा जो नहीं मिटेगी जल से

क्षुधा स्वयं को खा रही है
निद्रा घेर रही है चेतना को
महास्वप्न में दिख रहा है तुम्हारा चेहरा
मेघ में आकृति की तरह
अनहद के पार से
पुकार रही हूँ तुम्हें
चातक की तरह नहीं
अपनी तरह

मृत्यु भी पूर्ण नहीं कर सकी
एक अर्द्धसमाप्त जीवन ।