Last modified on 27 दिसम्बर 2008, at 14:36

तलाशी / अनामिका

अनिल जनविजय (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 14:36, 27 दिसम्बर 2008 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=कुमार अनुपम |संग्रह= }} <Poem> उन्होंने कहा- "हैण्ड्स...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)


उन्होंने कहा- "हैण्ड्स अप!"
एक-एक अंग फोड़ कर मेरा
उन्होंने तलाशी ली!
 
मेरी तलाशी में मिला क्या उन्हें?
थोड़े से सपने मिले और चांद मिला
सिगरेट की पन्नी-भर,
माचिस-भर उम्मीद, एक अधूरी चिट्ठी
जो वे डीकोड नहीं कर पाये
 
क्योंकि वह सिन्धुघाटी सभ्यता के समय
मैंने लिखी थी-
एक अभेद्य लिपि में-
अपनी धरती को-

"हलो धरती, कहीं चलो धरती,
कोल्हू का बैल बने गोल-गोल घूमें हम कब तक?
आओ, कहीं आज घूरते हैं तिरछा
एक अगिनबान बन कर
इस ग्रह-पथ से दूर!

उन्होंने चिट्ठी मरोड़ी
और मुझे कोंच दिया काल-कोठरी में!
अपनी क़लम से मैं लगातार
खोद रही हूँ तब से
काल-कोठरी में सुरंग!

कान लगा कर सुनो-
धरती की छाती में क्या बज रहा है!
क्या कोई छुपा हुआ सोता है?
और दूर उधर- पार सुरंग के- वहाँ
दिख रही है कि नहीं दिखती
एक पतली रोशनी
और खुला-खिला घास का मैदान!
कैसी ख़ुशनुमा कनकनी है!
हो सकता है - एक लोकगीत गुज़रा हो
कल रात इस राह से!
नन्हें-नन्हें पाँव उड़ते हुए से गए हैं
ओस नहाई घास पर!

फिलहाल, बस एक परछाईं
ओस के होंठों पर
थरथराती सी बची है

पहला एहसास किसी सृष्टि का
देखो तो-
टप-टप
टपकता है कैसे!