Last modified on 4 फ़रवरी 2009, at 01:10

सकल बन फूल रही सरसों / अमीर खुसरो

Pratishtha (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 01:10, 4 फ़रवरी 2009 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=अमीर खुसरो }}<poem>सकल बन (सघन बन) फूल रही सरसों, सकल ब...)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

सकल बन (सघन बन) फूल रही सरसों,
सकल बन (सघन बन) फूल रही....
अम्बवा फूटे, टेसू फूले, कोयल बोले डार डार,
और गोरी करत शृंगार,
मलनियां गढवा ले आइं करसों,
सकल बन फूल रही...
तरह तरह के फूल खिलाए,
ले गढवा हातन में आए ।
निजामुदीन के दरवाजे पर,
आवन कह गए आशिक रंग,
और बीत गए बरसों ।
सकल बन फूल रही सरसों ।