Last modified on 20 जुलाई 2010, at 02:03

मेरा शहर / ओम पुरोहित ‘कागद’

अंधेरी रात
और
अंगारा सा दिन
ढोता है,
मेरा शहर।

भूख का भाई
और
भूखे का दुश्मन है,
मेरा शहर

तड़पता है,
तड़पाता है,
न भूखा है,
न खाता है,
बस,
रात भर जाग कर
सुबह सो जाता है
मेरा शहर

दिन भर दफ्तर में
घिघियाता है
और शाम को
मजदूर के अंगूठे पर
स्याही बन कर चिपक जाता है,
मेरा शहर।

धर्म
ईमान
देश की कसम खाता है
लेकिन
मुर्गे की टांग पर
बिक जाता है,
मेरा शहर।

महिला कल्याण केन्द्र के--
चंदे की रसीद बुक लिए
दिन भर भटकता हुआ
रात को,
किसी कोठे पर पड़ा मिल जाता है,
मेरा शहर।

कहने को
दहेज विरोधी
आन्दोलन चलाता है
मगर
बिन दहेज की दुल्हन को
घर की चौखट पर ही
लील जाता है
मेरा शहर।

न्याय के कटघरे में
गीता पर हाथ धर हकलाता है
लेकिन
स्‍कॉच पी कर,
हर गुत्थी खोल जाता है
मेरा शहर।