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मेरी घड़ी / केदारनाथ अग्रवाल

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शान्त है-
क्रूस पर टँगे ईसा की तरह
दीवार पर टँगी मेरी घड़ी
देश-काल से अनभिज्ञ-
निरन्तरता से अनवगत
खून
अब नहीं रह गया खून
पहले जैसा मर्मांतक
इस जमाने के शरीर में।

न दिखा दीवार में
यहाँ वहाँ खून-
घड़ी के आसपास-
घड़ी के घंटों का-
छोटी-बड़ी सुइयों का।

दोष मेरा है-घड़ी का नहीं,
कि मैंने उसे शान्त-निश्चल बनाया,
चभी नहीं खिलाई;

भूख से मरी, निष्प्राण,
मुझको निहारती है खड़ी
मेरी घड़ी।

यही होता है भूख में :
बिना खाए जान जाती है,
वक्त से पहले
बिना बुलाए मौत आती है।

फर्क है इतना आदमी और घड़ी में
कि भूखा आदमी देर से मरता है;
भूखी घड़ी
तत्काल मरती है।

मैं पछताया,
घड़ी की भूख को मैंने तुरंत मिटाया;
चाभी खाते ही चल पड़ी मेरी घड़ी-
जान पाकर जी पड़ी।

मैंने सुना :
टनाटन टनाटन बजे
जी उठे चेतना के घंटे।

घड़ी अब क्रास पर टँगे ईसा की
प्रतिच्छवि नहीं;
जी उठी मेरी जिलाई
चल पड़ी चेतना की मेरी घड़ी।

समय का चक्र
अब
पूरा करने लगी घड़ी;
नवोल्लास से
घनन् घनन् बजने लगी
मेरी घड़ी;
दीवार पर
जानदार टँगी मेरी घड़ी।

रचनाकाल: १३-०४-१९७९