Last modified on 18 अक्टूबर 2010, at 22:17

भीतर पैठी / केदारनाथ अग्रवाल

Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 22:17, 18 अक्टूबर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल |संग्रह=मार प्यार की थापें / के…)

(अंतर) ← पुराना अवतरण | वर्तमान अवतरण (अंतर) | नया अवतरण → (अंतर)

भीतर पैठी
चित् में चिन्ता,
हिला रही है चीड़ वनों की रीढ़।

हाँक रहा-
हुंकार मारता-
महाकाल भी
दिल-दिमाग में
गजयूथों की भीड़।

मैं
बटोरता
बूढ़े हाथों
चावल के कुछ दाने
झरे पेड़ जो
मुझे बुलाते
यदा-कदा अनजाने।

रचनाकाल: ०६-०७-१९७९