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हमको मिले पद्माकर / केदारनाथ अग्रवाल

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सैर को गए थे हम
जहाँ कोई नहीं जाता
हमको मिले पद्माकर
हमने कहा चलो
बाँदा बुलाता है
इंकार किया उन्होंने
और
मन मारकर कहा
क्या करेंगे चलकर वहाँ?
किस पर लिखेंगे कविता?
जवान नदियाँ सूख गई हैं
बिजलियाँ म्यान में सो गई हैं
और बरसात इतनी होती है कि हम डूब जाएँगे।
न कोई मछली है
न रंगीन राते हैं
न हिरनियाँ हैं
और न हम हाथ उठा सकते हैं
कि दीपक की लौ को छुएँ (या नदी को गुदगुदाएँ)
टूटे शीशे हैं
और खाली दरीचियाँ हैं
शायद कोई मेंहदी भी नहीं लगाता
न कजली गाता है
सुना है कि हमारी कविताएँ सुनकर
वही कान बंदकर लेती हैं जिन पर
हमने कविताएँ लिखीं
सवैय्ये लोहे के हो गए हैं
कवित्त वित्तहीन हो गया है
क्या करेंगे बाँदा चलकर?
तुम्हीं मौज मारो, हम यहीं अच्छे हैं
मैंने कहा
‘मैं तो आपसे भी गया बीता हूँ’

रचनाकाल: १९६७