भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
खजुराहो जाते में / केदारनाथ अग्रवाल
Kavita Kosh से
Dkspoet (चर्चा | योगदान) द्वारा परिवर्तित 13:40, 26 नवम्बर 2010 का अवतरण (नया पृष्ठ: {{KKGlobal}} {{KKRachna |रचनाकार=केदारनाथ अग्रवाल |संग्रह=कुहकी कोयल खड़े पेड़ …)
जहाँ
सब ओर है
धूल-धूसर,
बिना पानी का
प्यासा प्रदेश,
और
जहाँ
बाँध तक चली गई है,
दौड़ती,
हाँफती,
धूप से धधकती,
पानी तलाशती सड़क
वहाँ
उस विषण्य में
दिखाई दे गए मुझे
तीन पेड़ कचनार,
कमर से ऊपर छतनार,
फूले,
बैंगनी,
जानदार,
जैसे जवान गँवई दिलदार;
और
मैं देखता रह गया इन्हें
ठगा
भूला भरमाया
और फिर
हो गया
तीन के पास खड़ा,
चौंका पेड़ कचनार,
वैसा ही छतनार,
फूला,
बैंजनी,
जानदार, मैं
जैसे जवान गँवई दिलदार,
हर्ष से हरता, मारता,
विषण्य का तिलमिलापन
रचनाकाल: २२-०३-१९७१