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जमील मज़हरी / परिचय

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जमील मज़हरी

सैयद काज़िमअली ‘जमील’ मज़हरीका जन्म बिहार प्रान्तीय ‘सारन’ ज़िलेके हसनपुरमें सितम्बर 1905 ई. में हुआ था। आपके दादा मौलाना मज़हर हुसैन उत्तरप्रदेशीय ग़ाज़ीपुर-निवासी थे। उनका विवाह हसनपुरमें हुआ था और वे वहीं बस गये थे। उन्हीं दादाकी स्मृति-स्वरूप ‘जमील’ अपने नाम के साथ ‘मज़हरी’ (मज़हर वंशीय) लिखते हैं। जमीलकी प्रारम्भिक शिक्षा घर पर ही हुई। 1915 ई. में मोतिहारी ज़िला-स्कूलमें प्रविष्ट हुए। 1920 ई. में कलकत्ते चले गये। वहींसे मैट्रिक पास किया। कलकत्ते से ही 1928 में बी.ए. और फ़ारसी एवं मुस्लिम इतिहासमें 1931 में एम.ए. किया।

शिक्षा सम्पन्न होने पर आपने पत्रकारिताको अपनाया। प्रारम्भ में ‘अलहिन्द’ का सम्पादन-भार सँभाला। उग्र-राष्ट्रीय विचार, जवानीका आलम, हृदय में कुछ कर दिखाने के वल्वले, मस्तिष्क लेखन-कलामें दक्ष, लेखनीमें प्रवाह, स्फूर्तिदायक, प्रेरणाप्रद और देश-भक्तिसे ओत-प्रोत मर्मस्पर्शी सम्पादकीय लेख, गोरी सरकारके साम्राज्यी दुर्गपर गोलेके समान बरसने लगे। एक मासमें ही वह घबरा उठी। परिणाम-स्वरूप आपको वहाँसे संबंध-विच्छेद करना पड़ा। समूचे परिवारके भरण-पोषणका भार आपपर था। आजीविकोपार्जनके लिए कोई-न-कोई कार्य करना आवश्यक था और लेखन-व्यवसायके अतिरिक्त और किसी तरफ़ रुचि न थी। अत: कलकत्तेमें ही रहकर 1937 ई. तक पत्र-पत्रिकाओंमें काम किया। उन दिनोंके कलकत्तेके उर्दू-पत्र कोई मुस्लिमलीगी, कोई मौलवी टाइप, कोई मज़हबी और कोई पोंगापंथी विचारधाराके थे। जमील उनमें अपने राष्ट्रीय विचार और हृदयोद्गार प्रकट नहीं कर सकते थे। अत: उसमें आप साहित्यिक, सामाजिक आदि ऐसे लेख देते रहे, जिससे विभिन्न विचार-धाराओंके पत्र-स्वामियोंसे व्यर्थका टकराव न हो।

1935 ई. में खिलाफ़त कमेटी वालों ने मुस्लिम-कान्फ्रेंस के साथ एक उर्दू-लिटरेरी कान्फ्रेंस की भी स्थापना की। राजनीतिक विचार-धाराओं में पृथ्वी-आकाश का अन्तर होते हुए भी शहीद सुहरावर्दी<ref>भारत-विभाजन के दिनों में बंगाल के मुख्यमंत्री, बंगाल रक्त-पात के प्रसिद्ध नेता और फिर कुछ अर्से तक पाकिस्तान के प्रधान मंत्री।</ref>, मुल्लाजान मुहम्मद वग़ैरह ने उर्दू-कान्फ्रेंस की स्वागतकारिणी का अध्यक्ष जमील को बनाया। इस कान्फ्रेंस में आपने जो स्वागत-भाषण पढ़ा, वह बहुत क्रान्तिकारी साबित हुआ। उस भाषण में अपने स्पष्ट शब्दों में ‘साहित्य केवल साहित्य के लिए’ पुरातन दृष्टिकोण का विरोध करते हुए फ़र्माया कि-‘‘उर्दू-अदब कीं तरक़्क़ी अगर हिन्दुस्तान की तहरीके-आज़ादी के काम नहीं आ सकती तो यह अपना फ़र्ज़ पूरा नहीं करती। इससे तहरीके-आज़ादी को आगे बढ़ाने का मुक़द्दस तारीखी फ़र्ज़ (पवित्र ऐतिहासिक कर्त्तव्य) अंजाम देना है।’’
मौलाना ‘हसरत’ मोहानी<ref>1924 ई. तक काँग्रेसके बड़े सरगर्म नेता, फिर जीवन पर्यन्त सम्प्रदायी, उर्दू के बहुत बड़े ग़ज़ल-गो शाइर।</ref> ने अपने व्याख्यान में आपके भाषण की कटु आलोचना की, किन्तु ख्वाजा हसन निज़ामी ने<ref>कट्टर साम्प्रदायिक नेता, उर्दू-गद्य के ख्याति –प्राप्त लेखक।</ref> उस आलोचना का दन्दान शिकन जवाब देते हुए भाषण की भूरि-भूरि प्रशंसा की और जब आप मंच से उतरे तो मौलाना शौकतअली<ref>ख़िलाफ़त-आन्दोलन के प्रमुख।</ref> ने आपको बाहुओं में भरकर उठा लिया। इसी कान्फ्रेंस के संबंध में मौलाना अबुलकलाम साहब ‘आज़ाद’ की सेवा में दो-चार बार जाने-आने से उनसे संबंध बढ़ते गए। यहाँ तक कि हर शनिवार को तीन वर्ष तक उनकी सेवा में उपस्थित होते रहने और उनके अपार ज्ञान-भण्डार से लाभ उठाने का सौभाग्य मिलता रहा।
बिहार में काँग्रेस-मंत्रिमण्डल बन जाने के बाद 2 दिसम्बर 1937 ई. से आप वहाँ के पब्लिसिटी ऑफ़ीसर के पद पर नियुक्त किए गए। 1939 ई. में काँग्रेस ने मंत्रिमण्डल से त्याग-पत्र दिया तो आप भी त्यागपत्र देने को प्रस्तुत हो गए, किन्तु देशरत्न राजेन्द्र बाबू (राष्ट्रपति) ने आपको त्याग-पत्र नहीं देने दिया। 12 अगस्त 1942 ई. में राष्ट्रपिता महात्मा गान्धी बन्दी बनाए गए तो आपने त्याग-पत्र देते हुए लिखा-
‘‘शहीदों के ख़ून की रौशनाई में अपना क़लम डुबो कर मैं हुकूमते-बरतानिया की पब्लिसिटी नहीं करना चाहता।’’

शब्दार्थ
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